थैलेसीमिया एक आनुवांशिक रोग है जिसमें शरीर में से हीमोग्लोबिन स्तर कम हो जाता है। यह रोग अनुवांशिक होने के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार में चलती रहता हैं। इस रोग में शरीर में लाल रक्त कण नहीं बन पाते है और जो थोड़े बन पाते है वह केवल अल्प काल तक ही रहते हैं।एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या 45 से 50 लाख प्रति घन मिली मीटर होती है। और इन लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण लाल अस्थि मज्जा मेे होता है। लेकिन हीमोग्लोबिन की कमी से पूरे शरीर को सही मात्रा में आॅक्सीजन नहीं मिल पाती है। या यूं कहे हीमोग्लोबिन की उपस्थिमि के कारण ही कोशिकाओं को लाल रंग या रक्त मिलने के साथ शरीर में आॅक्सीजन और कार्बनडाइआॅक्साइड को चक्र बनाए रखता है।
हीमोग्लोबिन में ऑक्सीजन से शीघ्रता से संयोजन कर अस्थायी यौगिक ऑक्सी हीमोग्लोबिन बनाने की क्षमता होती है। यह लगातार ऑक्सीजन को श्वसन संस्थान तक पहुंचा कर जातक को जीवन दान देता रहता है।
जागरूकता जरूरी-
मेजर थैलासीमिया
यह बीमारी उन बच्चों में होने की संभावना अधिक होती है, जिनके माता-पिता दोनों के जींस में थैलीसीमिया होता है। जिसे थैलीसीमिया मेजर कहा जाता है। इसमें बार बार खून चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। जन्म के 3 महीने बाद कभी भी इस बीमारी के लक्षण नजर आ सकते हैं।
माइनर थैलासीमिया
थैलीसीमिया माइनर उन बच्चों को होता है, जिन्हें प्रभावित जीन माता-पिता दोनों में से किसी एक से प्राप्त होता है। जहां तक बीमारी की जांच की बात है तो सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रक्त जांच के समय लाल रक्त कणों की संख्या में कमी और उनके आकार में बदलाव की जांच से इस बीमारी को पकड़ा जा सकता है। इसमें अधिकतर मामलों में कोई लक्षण नजर नहीं आता हैं। कुछ रोगियों में रक्त की कमी या एनिमा हो सकता हैं।
अतः यह अत्यावश्यक है कि विवाह से पहले महिला-पुरुष दोनों अपनी जांच करा लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत देश में प्रत्येक वर्ष सात से दस हजार थैलासीमिया पीड़ित बच्चों का जन्म होता है. केवल दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ही यह संख्या करीब 1500 है।भारत की कुल जनसंख्या का 3.4 प्रतिशत भाग थैलासीमिया ग्रस्त हैं।
मुख्य कारण
यह एक अनुवांशिक रोग है जिसमें माता या पिता या दोनों के जींस में गड़बड़ी के कारण इसका भुगतान बच्चे को भुगतना पड़ता है। रक्त में हीमोग्लोबिन दो तरह के
प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबीन और बीटा ग्लोबीन। इन दोनों में से किसी प्रोटीन के निर्माण वाले जीन्स में गड़बड़ी होने पर थैलासीमिया होता हैं। सामान्य रूप से शरीर में लाल रक्त कणों की उम्र करीब 120 दिनों की होती है। परंतु थैलेसीमिया के कारण इनकी उम्र सिमटकर मात्र 20 दिनों की हो जाती है। इसका सीधा प्रभाव शरीर में स्थित हीमोग्लोबीन पर पड़ता हैै। हीमोग्लोबीन की मात्रा कम हो जाने से शरीर दुर्बल हो जाता है जिसके बाद हमेशा किसी न किसी बीमारी से ग्रसित रहने लगता है।
परिणाम
जब हमारे शरीर में खून ही भली प्रकार से नहीं बनेगा तो उसके परिणाम भी घातक होंगे। गर्भवती महिला के पेट में गर्भ ठहर जाने पर अगर बच्चे के अंदर उचित मात्रा में हीमोग्लोबिन का अंश नहीं पहुंचता, तो बच्चा थैलेसीमिया का शिकार हो जाता है। बच्चे के जन्म के छह महिने बाद ही इसके लक्षण दिखने लगते हे। उपचार करने के लिए नियमित रक्त चढाने की आवश्यकता होती हैं। कुछ रोगियों को हर 10 से 15 दिन में रक्त चढ़ाना पड़ता हैं।ज्यादातर मरीज इसका खर्चा नहीं उठा पाते हैं। सामान्यतः पीड़ित बच्चे की मृत्यु 12 से 15 वर्ष की आयु में हो जाती हैं। सही उपचार लेने पर 25 वर्ष से ज्यादा समय तक जीवित रह सकते हैं। थैलासीमिया से पीड़ित रोगियों में आयु के साथ-साथ रक्त की आवश्यकता भी बढ़ते रहती हैं।
थैलासीमिया के लक्षण
सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना बढना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थैलासीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैै। बच्चों के नाखून और जीभ पिली पड़ जाने से पीलिया भ्रम पैदा हो जाता हैं। बच्चे के जबड़ों और गालों में असामान्यता आ जाती हैं। बच्चे अपनी उम्र से काफी छोटा नजर आता हैं। हमेशा बीमार नजर आना,कमजोरी,सांस लेने में तकलीफ आदि लक्षण दिखाई देने लगते है।
थैलेसीमिया की रोकथाम
बच्चा थैलेसीमिया रोग के साथ पैदा ही न हो, इसके लिए शादी से पूर्व ही लड़के और लड़की की खून की जांच अनिवार्य कर देनी चाहिए। यदि शादी हो भी गयी है तो गर्भावस्था के 8 से 11 सप्ताह में ही डीएनए जांच करा लेनी चाहिए। माइनर थैलेसीमिया से ग्रस्थ इंसान सामान्य जीवन जी पाता है और उसे आभास तक नहीं होता कि उसके खून में कोई दोष है। तो यदि शादी के पहले ही पति-पत्नी के खून की जांच हो जाए तो कफी हद तक इस आनुवांशिक रोग से बच्चों को बचाया जा सकता है।
थैलासीमिया का उपचार
रक्त चढ़ाना
थैलासीमिया का उपचार करने के लिए नियमित रक्त चढाने की आवश्यकता होती हैं। कुछ रोगियों को हर 10 से 15 दिन में रक्त चढ़ाना पड़ता हैं। सामान्यतः पीड़ित बच्चे की मृत्यु 12 से 15 वर्ष की आयु में हो जाती हैं। सही उपचार लेने पर 25 वर्ष से ज्यादा समय तक जीवित रह सकते हैं। थैलासीमिया से पीड़ित रोगियों में आयु के साथ-साथ रक्त की आवश्यकता भी बढ़ते रहती हैं।
चिलेशन थैरेपी-
बार-बार रक्त चढाने से और लोह तत्व की गोली लेने से रोगी के रक्त में लोह तत्व की मात्रा अधिक हो जाती हैं। लीवर तथा ह्रदय में जरुरत से ज्यादा लोह तत्व जमा होने से ये अंग सामान्य कार्य करना छोड़ देते हैं। रक्त में जमे इस अधिक लोह तत्व को निकालने के प्रक्रिया के लिए इंजेक्शन और दवा दोनों तरह के ईलाज उपलब्ध हैं।
बोन मैरो प्रत्यारोपण-
का उपयोग कर बच्चों में इस रोग को रोकने पर शोध हो रहा हैं। इनका उपयोग कर बच्चों में इस रोग को रोका जा सकता हैं।
फिजीशन डाॅ0 डी के चैहान से बातचीत पर आधारित
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